शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिन्दी की व्यथा


अभी
कल परसों की ही बात है
हिन्दी
दौड़ती-हाँफती दिल्ली पहुंची
अपने आकाओं के पास,
पसीने से तर-बतर होकर
हाथ जोड़कर
लड़खड़ाती आवाज़ में कहती है –
मेरे आका
यह कैसा जनसवेरा है ?
मैं जहाँ से आ रही
वहाँ बहुत पीड़ा है,
मेरे आका
हालात बड़े गंभीर हैं
मैं दूर होती जा रही हूँ
अपनों से ,
कुछ करो
पूरे भारत को मुझसे जोड़ो

मेरी शौतन धाक जमाए बैठी है
मुझे मेरे घर से बेघर कर रक्खी है
मेरे आका
मुझे उसके अत्याचार से बचाओ
तुम्हारी इज्जत तुम्हारे हाथ है
मुझे बचाओ
मैं तुम्हारी हूँ
तुम सबकी हूँ

मेरी स्थिति खतरे के निशान से ऊपर है
कोसी की तरह
मुझे गलत ना समझना
कोसी तो उतावली है
मैं तो ठहरी शांत-स्थिर
मैं तो सबके साथ हूँ लेकिन
मेरे साथ कोई नहीं,

हिन्दी की व्यथा सुन
आका भाव-विभोर हो गए
बोले-
हिन्दी तुम घबराना मत
हम सब तुम्हारे साथ हैं
तुमसे बढ़कर हमारे जज्बात हैं
हम तुम्हे नए सिरे से अपनाएँगे
तुम महान थी
महान हो
तुम्हे और भी महान बनाएँगे

अपने आकाओं की बातें सुन
हिन्दी की आंखे भर आयी
कांपते अधरों से मुस्काई
बोली-
मेरे आका
आपको धन्यवाद.. धन्यवाद...
पूरे हिन्दोस्तान को धन्यवाद...... |


1 टिप्पणी:

मेरी रचनाओं पर आपके द्वारा दिए गए प्रतिक्रिया स्वरुप एक-एक शब्द के लिए आप सबों को तहे दिल से शुक्रिया ...उपस्थिति बनायें रखें ...आभार