वो करवट बदल कर सो गए
ढूंढते रहे हम खाबों
में उन्हें
ना जाने कहाँ वो खो गए
फ़कत गुजरे थे चार दिन
वो जुदाई के बीज बो गए
मैं जलाता रहा शमा- ए-
मुहब्बत
वो किसी और के हो गए
सुना है आँखे नम थी उनकी भी
शायद खानापूर्ति को रो गए
यूँ ही जलता रहा ‘पंकज’
मोहब्बत में
लौटे नहीं वो अब तक कब के जो
गए
बहुत अच्छा लिखा है आपने पंकज जी !
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