जैसे कोई अपनों को खो रहा है
उजड़ गई हैं बस्तियां जिनकी
वो आज तिनके फिर ढो रहा है
लहूलुहान हो गया जमाना सारा
खंजर लिए वो अब भी घूम रहा है
दिल की आवाज़ गुम हो गई
ना जाने कहाँ आवाज़ हो रहा हैं
फरिश्ता समझता है वो खुद को
यहाँ इंसान इंसान को पूज रहा है
बुझती नहीं आग मिटती नहीं यादें
वो गेसुओं में फूल खोस रहा है
अश्क छुपाने की आदत थी जिन्हें
वो अश्कों से आज आँखे धो रहा है
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं