शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

लकीरें

मैं
कविताएं नहीं लिखता
सिर्फ
लकीरें खींचता हूं,,
जो समानांतर होती हैं
सामाजिक उत्थान के
सिर्फ लकीरें,
जो बेरोजगार और बेरोजगारी के माथे पर
खींची होती है
उनके चेहरे पर उभरी सिकन को भी मैं
सिर्फ लकीरें ही बताता हूं
याद दिला दूं
ये वो लकीरें नही
जो किसी साँप के गुजरने के बाद बनी हो
किसी टाटा बिड़ला के हाथों पर बनी हो
किसी सहोदर के आंगन बीच खींची हो
ये लकीरें
सरहद पर डटे जवानों के हाथों का है
अंतड़ी में पेट सटाए मजदुरी करते हाथों का है
नित्य नए आयाम रचते हाथों का है,,,,

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