हमारे यहां
दंगे में सब नंगे होते हैं साहब
यहां
हिंदू मुस्लिम नहीं मरता
सिर्फ इंसान मरता है साहब
देखिए कहीं
आपकी रोटी ना जल जाए
इस आँच में
आग बहुत तेज है साहब
,,,,,,,,, 4 मई
किसी खोह से
कुछ ऐसी खबर आ रही है कि
एक दिन सभी औरतें जला दी जाएंगी
और हम गलबहियाँ डाले
अस्थियां चुन रहे होंगे
घरों के कपाट खुले रहेंगे
भेड़िये अपनी मर्जी से
औरतों को नोच जाएगा
और हम तमाशबीन बने रहेंगे
औरतों के जिस्म पर चर्बी नहीं
सिर्फ हड्डी हुआ करेगी
और हम हड्डियों की बाँसुरी निर्माण में लगे रहेंगे
जो सिर्फ आँखो से बजा करेगी
और अंत में
एक खबर यह भी
आ रही है कि कुछ
योजनाएँ अभी रास्ते में है
जो औरतों के हित में है,,,,,,
,,,,,,,,,, 5 मई
कभी कभी
खुद में अजीब बदलाव महसूसता हूँ
लगता है मेरे सारे अंग
अपना स्थान बदल चुके हों
मेरी आँखें विस्मय से फट पड़ी हो
और खून टपक रहे हों उससे
टप टप टप
जीभ बाहर लटकने के बजाए
पेट में समा गयी हो
समझ रहे हैं ना आप
अभी तक मैं पागल नहीं हुआ
बस सोचता हूँ
जागती आँखों से
देश को भारत बने रहने का स्वप्न देखूँ,,,,,
,,,,,,,,,,,,,, 7 मई
माँ कभी मुझसे नाराज नहीं हुई
तब भी नहीं
जब उसकी खुंट से पैसे चुराए
कई बार
तब भी नहीं
जब शराब पी मैने सबसे छुपाकर
तब भी नहीं
जब झिड़क दिया
यूँ ही उन्हें
किसी बात पर
माँ सचमुच माँ होती है
माँ से कुछ भी कह दो
कितनी भी गलती करूं
माँ नाराज नहीं होती
पिता द्वारा मुझे पीटे जाने पर
पिता से एक ही बात कहती हमेशा
मार डालोगे क्या
बच्चा है
बुद्धि नहीं है
लेकिन कभी कभी
मैं नहीं सोचता कि
माँ तो माँ होती है
यूँ ही बरस पड़ता हूँ बात बे बात
बाद में ग्लानि से भर उठता है मन
और सिहर उठता है रोम रोम
ये बात और है कि
बचपन में
किसी किताब ने नहीं पढाया
म से माँ होता
और म से ही होती है ममता
लेकिन अब सोचता हूँ
माँ सचमुच माँ है
और म से सिर्फ और सिर्फ
माँ ही होता है
और कुछ नहीं ,,,
,,,,,,,,,,,, 8 मई
नदी सोचती है
क्यों नहीं एक बार
मानव मन में भी उतरा जाए
यूँ तो उतरती आई है वर्षों
पहाड़ों से
कंदराओं से
संकीर्ण नहरों से
कागजों से तो ये हर वर्ष उतरती है
जब योजनाओं का समय होता है
हर बार कलम की नोंक पर ढलती है
फिर स्याही की तरह कागज पर ही सूख जाती है
इसलिए नदी
मानव मन में उतरना चाहती है
ताकि भीगी रह सके युगो युगो तक
जैसे मानव गीला हो थरथराता है नदी में
नदी भी चाहती है महसूसना
मानव की थरथराहट
नदी बहती हुई
पहुँचती है हर द्वार
सवर्ण दलित
को किनारे लगाती हुई
बुझाती है प्यास
बावजूद नदी अपना स्वाद नहीं बदलती
पानी ही रहती है
इसलिए नदी
मानव मन में उतरना चाहती है,,,,
,,,,,,,,,,,, 12 मई
हमारे पुरखों की जागीर को
अपना समझने वालों सुनो
हमारे सपनों को
अपनी आँखों पे सजाने वालों सुनो
हमारी उतरन पे पलने वालों सुनो
सुनो कि
ये जो उड़ रहे हो
ऊपर ही ऊपर
कभी झांको उसकी आँखों में भी
जो बंजर पड़ी जमीन से एकटक निहारता है तेरा उड़नखटोला
जिसकी आँसू से गूंथे जाते हैं
तेरे घर के आटे
कभी सूँघो उनके पसीने की भी गंध
जो महकते हैं तेरे लिबास से
कभी फटी हुई गंजी के भीतर से घुसती हुई हवा को भी महसूसो
जिससे तेरी बालकोनी के परदे फरफराते हैं
हम भी इंसान ही हैं
ओ हैवानों
हमारी बहु बेटी के शरीर में भी होता है प्राण
जिसके नाम पर मनाते हो महिला दिवस
उन्हें भी हक है सशक्त होने का,,,,,,
,,,,,,,,,16 मई
अभी अभी
रौंदा गया है एक कुत्ता
चौराहे के बीचों बीच
कुछ कुत्तों का जमावड़ा लगा है अभी अभी
कुछ चिंतित हैं
कुछ फुसफुसाने में लगे हैं
मरा हुआ कुत्ता
सवर्ण है या दलित
शोध में लगे हैं
ताकि
आंदोलनरत हो सके कुत्तों का एक समूह
और अपने वंशज की लाश पर रोटियां सेंक सके
और भर सके अपना पेट
ना जाने कितने दिन हो गए
रोटी की बू तक नहीं पहूँची
भई
हमारे देश में कुत्तों की बड़ी इज्जत है
ख्याल रखना तो जायज है,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,20 मई
बारिश रोज होती है
ओह बारिश रोज कहाँ होती
धूप रोज उगता है
हाँ
धूप भी रोज कहाँ उगता है
यहाँ रोज सिर्फ
किसान मरा करते हैं
बारिश और धूप के डर से,,,,,,,,,,
,,,,,,, 25 मई
एक आवारा कवि
गुनाह किए जा रहा है
बस किए जा रहा है
आज की सुर्खियों में उस कवि के बदले
किसी और को सजा मुकर्रर की बात छपी थी
कवि अट्टहास करता हुआ
खबरें बाँच रहा है
आज भी
गुनाह किए जा रहा है
सत्ता पक्ष बौखला सा गया है
कवि का हर गुनाह मुआफ होता जा रहा है
कवि मजबूत होता जा रहा है
बस वो आज भी गुनाह किए जा रहा है
कवि सिर्फ कवि रहना चाहता है
वो तलवे नहीं चाटता
चापलूसी नहीं करता
पुरस्कार और सम्मान की इच्छा नहीं पालता
बस कवि
गुनाह किए जा रहा है,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,, 30 मई
© पंकज कुमार साह
दंगे में सब नंगे होते हैं साहब
यहां
हिंदू मुस्लिम नहीं मरता
सिर्फ इंसान मरता है साहब
देखिए कहीं
आपकी रोटी ना जल जाए
इस आँच में
आग बहुत तेज है साहब
,,,,,,,,, 4 मई
किसी खोह से
कुछ ऐसी खबर आ रही है कि
एक दिन सभी औरतें जला दी जाएंगी
और हम गलबहियाँ डाले
अस्थियां चुन रहे होंगे
घरों के कपाट खुले रहेंगे
भेड़िये अपनी मर्जी से
औरतों को नोच जाएगा
और हम तमाशबीन बने रहेंगे
औरतों के जिस्म पर चर्बी नहीं
सिर्फ हड्डी हुआ करेगी
और हम हड्डियों की बाँसुरी निर्माण में लगे रहेंगे
जो सिर्फ आँखो से बजा करेगी
और अंत में
एक खबर यह भी
आ रही है कि कुछ
योजनाएँ अभी रास्ते में है
जो औरतों के हित में है,,,,,,
,,,,,,,,,, 5 मई
कभी कभी
खुद में अजीब बदलाव महसूसता हूँ
लगता है मेरे सारे अंग
अपना स्थान बदल चुके हों
मेरी आँखें विस्मय से फट पड़ी हो
और खून टपक रहे हों उससे
टप टप टप
जीभ बाहर लटकने के बजाए
पेट में समा गयी हो
समझ रहे हैं ना आप
अभी तक मैं पागल नहीं हुआ
बस सोचता हूँ
जागती आँखों से
देश को भारत बने रहने का स्वप्न देखूँ,,,,,
,,,,,,,,,,,,,, 7 मई
माँ कभी मुझसे नाराज नहीं हुई
तब भी नहीं
जब उसकी खुंट से पैसे चुराए
कई बार
तब भी नहीं
जब शराब पी मैने सबसे छुपाकर
तब भी नहीं
जब झिड़क दिया
यूँ ही उन्हें
किसी बात पर
माँ सचमुच माँ होती है
माँ से कुछ भी कह दो
कितनी भी गलती करूं
माँ नाराज नहीं होती
पिता द्वारा मुझे पीटे जाने पर
पिता से एक ही बात कहती हमेशा
मार डालोगे क्या
बच्चा है
बुद्धि नहीं है
लेकिन कभी कभी
मैं नहीं सोचता कि
माँ तो माँ होती है
यूँ ही बरस पड़ता हूँ बात बे बात
बाद में ग्लानि से भर उठता है मन
और सिहर उठता है रोम रोम
ये बात और है कि
बचपन में
किसी किताब ने नहीं पढाया
म से माँ होता
और म से ही होती है ममता
लेकिन अब सोचता हूँ
माँ सचमुच माँ है
और म से सिर्फ और सिर्फ
माँ ही होता है
और कुछ नहीं ,,,
,,,,,,,,,,,, 8 मई
नदी सोचती है
क्यों नहीं एक बार
मानव मन में भी उतरा जाए
यूँ तो उतरती आई है वर्षों
पहाड़ों से
कंदराओं से
संकीर्ण नहरों से
कागजों से तो ये हर वर्ष उतरती है
जब योजनाओं का समय होता है
हर बार कलम की नोंक पर ढलती है
फिर स्याही की तरह कागज पर ही सूख जाती है
इसलिए नदी
मानव मन में उतरना चाहती है
ताकि भीगी रह सके युगो युगो तक
जैसे मानव गीला हो थरथराता है नदी में
नदी भी चाहती है महसूसना
मानव की थरथराहट
नदी बहती हुई
पहुँचती है हर द्वार
सवर्ण दलित
को किनारे लगाती हुई
बुझाती है प्यास
बावजूद नदी अपना स्वाद नहीं बदलती
पानी ही रहती है
इसलिए नदी
मानव मन में उतरना चाहती है,,,,
,,,,,,,,,,,, 12 मई
हमारे पुरखों की जागीर को
अपना समझने वालों सुनो
हमारे सपनों को
अपनी आँखों पे सजाने वालों सुनो
हमारी उतरन पे पलने वालों सुनो
सुनो कि
ये जो उड़ रहे हो
ऊपर ही ऊपर
कभी झांको उसकी आँखों में भी
जो बंजर पड़ी जमीन से एकटक निहारता है तेरा उड़नखटोला
जिसकी आँसू से गूंथे जाते हैं
तेरे घर के आटे
कभी सूँघो उनके पसीने की भी गंध
जो महकते हैं तेरे लिबास से
कभी फटी हुई गंजी के भीतर से घुसती हुई हवा को भी महसूसो
जिससे तेरी बालकोनी के परदे फरफराते हैं
हम भी इंसान ही हैं
ओ हैवानों
हमारी बहु बेटी के शरीर में भी होता है प्राण
जिसके नाम पर मनाते हो महिला दिवस
उन्हें भी हक है सशक्त होने का,,,,,,
,,,,,,,,,16 मई
अभी अभी
रौंदा गया है एक कुत्ता
चौराहे के बीचों बीच
कुछ कुत्तों का जमावड़ा लगा है अभी अभी
कुछ चिंतित हैं
कुछ फुसफुसाने में लगे हैं
मरा हुआ कुत्ता
सवर्ण है या दलित
शोध में लगे हैं
ताकि
आंदोलनरत हो सके कुत्तों का एक समूह
और अपने वंशज की लाश पर रोटियां सेंक सके
और भर सके अपना पेट
ना जाने कितने दिन हो गए
रोटी की बू तक नहीं पहूँची
भई
हमारे देश में कुत्तों की बड़ी इज्जत है
ख्याल रखना तो जायज है,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,20 मई
बारिश रोज होती है
ओह बारिश रोज कहाँ होती
धूप रोज उगता है
हाँ
धूप भी रोज कहाँ उगता है
यहाँ रोज सिर्फ
किसान मरा करते हैं
बारिश और धूप के डर से,,,,,,,,,,
,,,,,,, 25 मई
एक आवारा कवि
गुनाह किए जा रहा है
बस किए जा रहा है
आज की सुर्खियों में उस कवि के बदले
किसी और को सजा मुकर्रर की बात छपी थी
कवि अट्टहास करता हुआ
खबरें बाँच रहा है
आज भी
गुनाह किए जा रहा है
सत्ता पक्ष बौखला सा गया है
कवि का हर गुनाह मुआफ होता जा रहा है
कवि मजबूत होता जा रहा है
बस वो आज भी गुनाह किए जा रहा है
कवि सिर्फ कवि रहना चाहता है
वो तलवे नहीं चाटता
चापलूसी नहीं करता
पुरस्कार और सम्मान की इच्छा नहीं पालता
बस कवि
गुनाह किए जा रहा है,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,, 30 मई
© पंकज कुमार साह