रविवार, 5 जून 2016

मेरी नौ कविताएँ (मई 2016)

हमारे यहां
दंगे में सब नंगे होते हैं साहब
यहां
हिंदू मुस्लिम नहीं मरता
सिर्फ इंसान मरता है साहब
देखिए कहीं
आपकी रोटी ना जल जाए
इस आँच में
आग बहुत तेज है साहब
                              ,,,,,,,,, 4 मई

किसी खोह से
कुछ ऐसी खबर आ रही है कि
एक दिन सभी औरतें जला दी जाएंगी
और हम गलबहियाँ डाले
अस्थियां चुन रहे होंगे

घरों के कपाट खुले रहेंगे
भेड़िये अपनी मर्जी से
औरतों को नोच जाएगा
और हम तमाशबीन बने रहेंगे

औरतों के जिस्म पर चर्बी नहीं
सिर्फ हड्डी हुआ करेगी
और हम हड्डियों की बाँसुरी निर्माण में लगे रहेंगे
जो सिर्फ आँखो से बजा करेगी

और अंत में
एक खबर यह भी
आ रही है कि कुछ
योजनाएँ अभी रास्ते में है
जो औरतों के हित में है,,,,,,
                                        ,,,,,,,,,, 5 मई


कभी कभी
खुद में अजीब बदलाव महसूसता हूँ
लगता है मेरे सारे अंग
अपना स्थान बदल चुके हों
मेरी आँखें विस्मय से फट पड़ी हो
और खून टपक रहे हों उससे
टप टप टप
जीभ बाहर लटकने के बजाए
पेट में समा गयी हो
समझ रहे हैं ना आप
अभी तक मैं पागल नहीं हुआ
बस सोचता हूँ
जागती आँखों से
देश को भारत बने रहने का स्वप्न देखूँ,,,,,
                                         ,,,,,,,,,,,,,, 7 मई


माँ कभी मुझसे नाराज नहीं हुई
तब भी नहीं
जब उसकी खुंट से पैसे चुराए
कई बार

तब भी नहीं
जब शराब पी मैने सबसे छुपाकर
तब भी नहीं
जब झिड़क दिया
यूँ ही उन्हें
किसी बात पर

माँ सचमुच माँ होती है
माँ से कुछ भी कह दो
कितनी भी गलती करूं
माँ नाराज नहीं होती

पिता द्वारा मुझे पीटे जाने पर
पिता से एक ही बात कहती हमेशा
मार डालोगे क्या
बच्चा है
बुद्धि नहीं है

लेकिन कभी कभी
मैं नहीं सोचता कि
माँ  तो माँ होती है
यूँ ही बरस पड़ता हूँ बात बे बात
बाद में ग्लानि से भर उठता है मन
और सिहर उठता है रोम रोम

ये बात और है कि
बचपन में
किसी किताब ने नहीं पढाया
म से माँ होता
और म से ही होती है ममता
लेकिन अब सोचता हूँ
माँ सचमुच माँ है
और म से सिर्फ और सिर्फ
माँ ही होता है
और कुछ नहीं ,,,
                                          ,,,,,,,,,,,, 8 मई

नदी सोचती है
क्यों नहीं एक बार
मानव मन में भी उतरा जाए
यूँ तो उतरती आई है वर्षों
पहाड़ों से
कंदराओं से
संकीर्ण नहरों से
कागजों से तो ये हर वर्ष उतरती है
जब योजनाओं का समय होता है
हर बार कलम की नोंक पर ढलती है
फिर स्याही की तरह कागज पर ही सूख जाती है
इसलिए नदी
मानव मन में उतरना चाहती है
ताकि भीगी रह सके युगो युगो तक
जैसे मानव गीला हो थरथराता है नदी में
नदी भी चाहती है महसूसना
मानव की थरथराहट

नदी बहती हुई
पहुँचती है हर द्वार
सवर्ण दलित
को किनारे लगाती हुई
बुझाती है प्यास
बावजूद नदी अपना स्वाद नहीं बदलती
पानी ही रहती है
इसलिए नदी
मानव मन में उतरना चाहती है,,,,
                                          ,,,,,,,,,,,, 12 मई

हमारे पुरखों की जागीर को
अपना समझने वालों सुनो
हमारे सपनों को
अपनी आँखों पे सजाने वालों सुनो
हमारी उतरन पे पलने वालों सुनो
सुनो कि
ये जो उड़ रहे हो
ऊपर ही ऊपर
कभी झांको उसकी आँखों में भी
जो बंजर पड़ी जमीन से एकटक निहारता है तेरा उड़नखटोला
जिसकी आँसू से गूंथे जाते हैं
तेरे घर के आटे
कभी सूँघो उनके पसीने की भी गंध
जो महकते हैं तेरे लिबास से
कभी फटी हुई गंजी के भीतर से घुसती हुई हवा को भी महसूसो
जिससे तेरी बालकोनी के परदे फरफराते हैं
हम भी इंसान ही हैं
ओ हैवानों
हमारी बहु बेटी के शरीर में भी होता है प्राण
जिसके नाम पर मनाते हो महिला दिवस
उन्हें भी हक है सशक्त होने का,,,,,,

                                             ,,,,,,,,,16 मई

अभी अभी
रौंदा गया है एक कुत्ता
चौराहे के बीचों बीच
कुछ कुत्तों का जमावड़ा लगा है अभी अभी
कुछ चिंतित हैं
कुछ फुसफुसाने में लगे हैं
मरा हुआ कुत्ता
सवर्ण है या दलित
शोध में लगे हैं
ताकि
आंदोलनरत हो सके कुत्तों का एक समूह
और अपने वंशज की लाश पर रोटियां सेंक सके
और भर सके अपना पेट
ना जाने कितने दिन हो गए
रोटी की बू तक नहीं पहूँची
भई
हमारे देश में कुत्तों की बड़ी इज्जत है
ख्याल रखना तो जायज है,,,,,,
                                         ,,,,,,,,,,,,,,,20 मई

बारिश रोज होती है
ओह बारिश रोज कहाँ होती
धूप रोज उगता है
हाँ
धूप भी रोज कहाँ उगता है
यहाँ रोज सिर्फ
किसान मरा करते हैं
बारिश और धूप के डर से,,,,,,,,,,
                                             ,,,,,,, 25 मई


एक आवारा कवि
गुनाह किए जा रहा है
बस किए जा रहा है
आज की सुर्खियों में उस कवि के बदले
किसी और को सजा मुकर्रर की बात छपी थी
कवि अट्टहास करता हुआ
खबरें बाँच रहा है
आज भी
गुनाह किए जा रहा है
सत्ता पक्ष बौखला सा गया है
कवि का हर गुनाह मुआफ होता जा रहा है
कवि मजबूत होता जा रहा है
बस वो आज भी गुनाह किए जा रहा है
कवि सिर्फ कवि रहना चाहता है
वो तलवे नहीं चाटता
चापलूसी नहीं करता
पुरस्कार और सम्मान की इच्छा नहीं पालता
बस कवि
गुनाह किए जा रहा है,,,,,,
                                ,,,,,,,,,,,,,,,, 30 मई

© पंकज कुमार साह





सोमवार, 2 मई 2016

मेरी कविताएँ ( अप्रैल 2016 )

आओ
भारत माता की जय
बोलते हैं
क्या कहा
नहीं बोलोगे
कोई बात नहीं
अपनी मां की ही जय बोल लो
क्या कहा
वो भी नहीं बोलोगे
अरे भाई राम की नहीं
रावण की ही जय बोल दो
तुम्हारे चरित्र से मेल जो खाता है
क्या कहा
कुछ भी हो जाए
नहीं बोलोगे
चलो ठीक है
कुछ भी बोलो
ताकि आग निकले मुंह से
और जल उठे फिर से
सब कुछ,,,,,
                                     ,,,,,,,,,,,,,,,,4 अप्रैल

तुम्हारा होना
----------------

तुम्हारा नही होना
होने के समान है
सोचता हूं
तुम होती तो
अपने शब्दों को कहां बिछाता
तुम्हारी अनुपस्थिति
मेरे शब्दों के साथ उपस्थित है
ये सच है कि मैं आज हरा हूं
तो उसमें तुम्हारी हिस्सेदारी भी है
ये भी सच है
मैं तुम्हारे होने पर
क़सीदे नही पढता
और ना ही
तुम्हारी बाहों में उलझ
खुद को नामचीन कवि या शायर समझता
मैं तब भी उलझन में था और
आज भी उधेड़बुन में हूं
कि तुम्हारा होना अच्छा होता
या ना होना,,,,
                                     ,,,,,,,,,,,,,,,,,,6 अप्रैल

आप अपनी जड़ में मिट्टी
खुद डाल सकते हो
आपको बस जरूरत होगी तो
शराफत
ईमानदारी
जिंदादिली
कर्मठता से
किसी पहाड़ को हिलाने की
जहां से मिट्टी झरेगी
फिर
अपने कटे हुए हाथ से भी
सींच सकते हैं अपना पूरा परिवार
बिना किसी परिवार की जड़ हिलाए,,,,
                                      ,,,,,,,,,,,,,  9 अप्रैल

किसान
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अभी खुश है किसान
गेहूं पकने को है
जिसे बेच कर्जा चुकाएगा
जो लिए थे उसने बेटी के ब्याह पर
और गिड़गिड़ाते हुए कहा था
कुछ दे दो मालिक
इज्जत का सवाल है
फसल पकते ही सूद समेत लौटा दुंगा
मेरी बेटी भी आपकी ही बेटी हुई न सरकार
यह सुन
मालिक मंद मंद मुस्काया सोचा
सच उसकी ही बेटी है

अभी बहुत खुश है किसान
फसल कट चुका
अब बेचने की बारी है
अचानक समर्थन मूल्य के साथ
किसान के उत्साह में भी गिरावट
सस्ते कीमत पर बेचने होंगे गेहूं
मालिक अब भी मुस्का रहा
चुकाओ कैसे चुकाओगे
मैं तो एक पैसा नहीं छोड़ने वाला

अभी भी खुश है किसान
माथा पीट रहा है
किसान होने पर खुद को कोस रहा है
आत्महत्या की सोच रहा है क्योंकि
यही एक रास्ता है जो सीधी जाती है
मालिक अब मुस्का नहीं रहा
मालिक अब अपने पैसे की नहीं
किसान की दूसरी बेटी को सोच रहा है
आखिर वो भी तो,,,,,
                                           ,,,,,,,,11 अप्रैल


                     छापामारी
                     -------------
गांव में एक किराना स्टोर वाला देशी शराब बेचता है । हर बार की तरह पुलिस को खबर मिलती है । छापामारी शुरू होती है
दुकानदार - कुछ नहीं है सर, कोई दुश्मनी से हमको फंसाना चाह रहा है
पुलिस - तु बकवास बंद करेगा कि लगाएं दू डंटा,
कुछ नहीं,  कुछ नहीं करता है,,,,
तलाशी खत्म होती है ।
दुकानदार के चेहरे पर खुशी दोगुनी हो जाती है
सोचता है फिर जीत गए ।
भीड़ मायुस होकर वापस लौट जाती है ।
पुलिस - बहुत थक गए जी कुछ खिलाओ
पिलाओ
दुकानदार- सर क्या लाएं, व्हीस्की या,,,,,
पुलिस - अरे लाओ ना गर्मी बहुत है

इसी के साथ छापामारी पूरी होती है,,,,,
                                     ,,,,,,,,,,,,,,,12 अप्रैल

पत्रकार की मौत पर
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क्या लिखते हो साहब !
ऐसा लगता है
सियासत आपके कलम की नोंक पर धरी हो
जिसे अगर एक बार झटक दो
सियासतदार दूर गिर धूल में मिल जाए
वाह
मैं तो मुरीद हो गया
आपके कलम की
कोई जवाब नहीं है

क्या लिखते हो साहब
ऐसा लगता है
सरस्वती ने आपको कान में कुछ विशेष
कह भेजा है
किसकी विसात जो टिक सके आपके सामने
ओह
छा गए गुरू
हर एक जुमला
काबिले तारीफ है

कल ये साहब
अखबार कार्यालय में सहकर्मी के मुंह से
अपनी प्रशंसा सुन अघाते नहीं थे
जिंदा थे
आज किसी सड़क के किनारे बीहड़ में
हमेशा के लिए सोये हुए
मरे पड़े थे,,,,,,
                                         ,,,,,,,,17 April

पृथ्वी दिवस पर
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लाओ तुम्हारी हथेली पर
तुुम्हारी सुलगती हुई पृथ्वी डाल दूं
ताकि तुम इसे थोडा़ फूंक मार
धधका सको
ताकि राख में तब्दील हो जाए यह पृथ्वी
फिर मांज सको अपने घर के बर्तन

ये लो झुलसी हुई पृथ्वी
तैयार है सज धज कर
पृथ्वी बचाओ
पृथ्वी बचाओ
कहकर महिमा मंडन प्रारंभ करो
फिर चलते चलते
थूक जाओ इसकी छाती पर

लाओ तुम्हारी बालकनी में
पृथ्वी को निचोड़ कर टांग दूं
ताकि सूखी हुई पृथ्वी को पहन
दौरा कर सको ब्रम्हाण्ड का
                                           ,,,,,,,,22 April

आप कुछ नहीं जानते
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आप कुछ नहीं जानते
मैं सब जानता हूँ
मुझे पता है
कितना दूध उतरेगा
मजदूरी करती किसी महिला की छाती से
या खून पिलाती रहेगी यूं ही
अपने दूधमुंहे को दिन भर

मुझे पता है
कोई किसान जब बैलों के संग लौटेगा
भरी दुपहरी अपनी बथान पर
तो उसके आगे
बड़ी बड़ी फांक वाली आलू की तरकारी
और जनहा रोटी ही परोसी जाएगी
जिसकी डकार आपकी नींव हिला सकती है

आप कुछ नहीं जानते
मैं सब जानता हूँ
सवा अरब की आबादी की आँखों में आप धूल नहीं झोक रहे
अपने लिए बवंडर निर्माण में लगे हैं आप

मुझे पता है
देश में मरने वालों की कमी नहीं
कभी भी
कोई भी मारा जा सकता है
आपकी आत्मा मर गई
तो कौन सी बड़ी बात
आप कुछ नहीं जानते
मैं सब जानता हूँ,,,,,,,
                                        ,,,,,,,,,,,27 April









शनिवार, 2 अप्रैल 2016

मेरी दस कविताएं ( मार्च )

1.विरोध
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तुम्हारा आना
महज एक संयोग या
मेरी किस्मत नहीं थी
लेकिन
तुुम्हारे जाने का विरोध मैं
अंतिम क्षण तक करता रहूंगा
खोलता गया खुद को
परत दर परत
मुझे नहीं पता
उन परतों के लिबास में
कैसी लगोगी तुम,,,,
                                         ,,,,,,,,,,, 2 मार्च
 2.                      
जहां भी होगी तुम
कुछ जरूर कौंधा होगा मेरी तरह
तुम्हारे भी जेहन में
हां, आज फिर शिवरात्रि का दिन है
मेरे साथ तुम्हारा भाग जाने वाली बात करने का दिन
और तुम्हारी बातों को एक सिरे से नकार देने वाला दिन
क्योंकि तुम मेरे प्रिय होने से पहले
एक प्रेम में डूबी लड़की थी
और तुम्हारे लिए समाज के बहुत सारे नियम लागू होते थे एक साथ
मुझे नहीं मालूम
वो सिर्फ तुम्हारा मजाक था
या फिर
सचमुच बिताना चाहती थी जिंदगी
मेरे साथ
लो आज वही दिन फिर आ गया
लेकिन तुम नहीं हो
ना ही तुम्हारी बातें
जिंदगी सचमुच मजाक बन गयी
मैं आज भी वहीं हूं
भले तुम नहीं हो
ना वक्त ठहरा और ना ही तुम
लेकिन आज भी तुम्हारा प्रेम
ठहरा हुआ है मेरे भीतर  ,,,,,,
                                           ,,,,,,,,,,7 मार्च

3.तुम जलो स्री
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तुम जलो स्री
जलती रहो
कभी अपनों के साथ
ससुराल में जलो
कभी परायों के साथ
मायके में जलो
कभी तेजाब से जलो
कभी निर्भया बन जलो
तुम जलती रहो
कभी चुल्हे में अंगीठी बन जलो
कभी अंधेरे दीपक बन जलो
तुम जलो स्री
जलती रहो
तुम्हारे लिए सब छलावा है
महिला दिवस बस दिखावा है
तुम इन सब पर ध्यान मत दो स्री
अपना अधिकतर समय
जलने में व्यतीत करो
तुम्हारे जलने से ही प्रकाशित है चाँद
तुम जलो स्री
बस जलती रहो,,,,,,
                                   ,,,,,,,,,,,,,,,,, 8 मार्च

4.माल्या
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कर्ज लिया है
तो चुका दूंगा
पागल हो,,,
इस देश का कर्ज
कोई चुका पाया
आज तक
जो आप ,,
अच्छा किया
जो देश छोड़ दिया
कुछ तो फर्क हो
आप में और उनमें
वो सिर्फ बातें करते हैं
देश छोड़ने की
और यहां गली मुहल्ले में
बातें शुरू हो जाती है
और आप
कब चले गए
बातें करने का समय ही न दिया
अच्छा किया,,,,,
                                ,,,,,,,,,,,,,, 10 मार्च

5.तुम्हारा प्रेम
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तुम्हारा प्रेम
मंदिरों में बंट रहा प्रसाद नहीं
जिसे पाने के लिए भीड़ में
हाथ फैलाए खड़ा रहूं
तुम्हारा प्रेम तो
उस पंचामृत के समान है
जिसे ग्रहण करने के बाद
लोग अपने हाथ सर पर पोंछते हों
और बस घूंट मात्र में ही खुद को
तृप्त महसूसते हों,,,,,
                          ,,,,,,,,,,,,12 मार्च


6.गांव में मकान नहीं होता
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गांव में मकान नहीं होता
झोपड़ी और मड़ैया हुआ करती है
घास फूस की दीवार हुआ करती है
संयोग वश आपके पास मकान है तो
आप उन लोगों में गिने जाते हैं
जो आपको हैसियत वाला कहलाने पर
मजबूर करता है
आप झोपड़ी में रहते हैं तो कीड़े हैं
ये बात और है कि
उसी कीड़े की उपज पर वो अपनी हैसियत बघारते हैं
मलमल के कुर्ते और
मुंह में पान दबाए चलते हैं
आज भी मकानों की तपिश से
झुलस रही है झोपड़ियां
गांव खत्म नहीं हो रहा
बस
शहर होता जा रहा है
परम्पराएं खत्म नहीं हो रही
मिटायी जा रही है
चूंकि हम कुचले जा रहे हैं
इसलिए हम कीड़े होते जा रहे है,,,,
                                       ,,,,,,,,,,,,,,18 मार्च

7.खामोशी
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कभी कभी
खामोशी अपने भीतर अतीत समेटे
चुहलबाजी कर रही होती है हमारे साथ
और हम उस अतीत को भूलाने में
खामोश बैठे होते हैं
हमारा अतीत
हमारी खामोशी से इतर नहीं होता
बस कोशिश रहती है
किसी एक को नजरअंदाज किया जाए
पर किसे
उस अतीत को
जिसे भुलाने में
खामोशी परत दर परत चढती जाती है
हमारे मस्तिष्क पर
और दिन ब दिन खोखले होते जाते हैं हम
या फिर उस खामोशी को
जो हमें अतीत भूलने नहीं देती
और अस्थि पंजर होकर रह जाते हैं हम,,,,
                                         ,,,,,,,19 मार्च

8.आज होली है
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आओ रंग लगाएं हम सब
मन के द्वेष मिटा लें हम सब
आज होली है
आओ बचाएं एक और प्रह्लाद
एक और होलिका जलाएं हम सब
आज होली है
फर्क मिटा दें ऊंच नीच का
बैर मिटा लें हम बीच का
आज होली है
रंग लें अपने तन मन हम सब
रंग दें सबके तन मन हम सब
आज होली है
                                      ,,,,,,,,,,,,,, 23 मार्च

9.लोकतंत्र का प्रसव काल
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यह समय
लोकतंत्र के प्रसव काल का है
आइ सी यू में भर्ती
लोकतंत्र की चीख
हर कोई कान लगाए सुन रहा है
बाहर चहलकदमी कर रही भीड़ में खुशी है
कुछ लोग
कफन की व्यवस्था में लगे हैं
इन सबसे बेखबर
लोकतंत्र बेसुध पड़ी है
आइ सी यू के बेड पर
चारों ओर से मुंह ढके चिकित्सक खड़े हैं
हाथों में दस्ताना लगाए
उन्हे भी डर है संक्रमण का,,,,,

                                            ,,,,,,,,,28 मार्च

10.कवि नित्यानंद गायेन के लिए
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वो प्रेम बोते हैं
प्रेम सींचते हैं
लेकिन
प्रेम काटते नहीं
नफरत का पीढा मिलता है उन्हें बैठने को
बशर्ते वो
प्रेम कविताएं लिखते हैं
प्रेम की आड़ में वो सत्ता पक्ष की
बखिया भी खूब उधेड़ते हैं
खुद को कम्युनिस्ट
और सत्ताधारी को कैपिटलिस्ट कहते हैं
बशर्ते कवि
कभी झूठ ना बोलते हों
लेकिन
उनका सच उन्हें प्रेम से अलग नहीं होने देता
वो खूब प्रेम कविताएं लिखते हैं
और खूब गालियां भी सुनते है
क्योंकि कवि
प्रेम ओढता है
प्रेम बिछाता है
और सब पर छा जाता है
काले बादल के मानिंद
जो कभी बरसता है तो
पानी नहीं बरसता
सबकी आंखों से
खून बरसता है खून,,,
                                          ,,,,,,,,,,31 मार्च
© पंकज कुमार साह

बुधवार, 2 मार्च 2016

मेरी नौ कविताएं (फरवरी )

जनहित में जारी
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सोशल साइट्स पर
शेखी बघारते कलमचियों
होश में आओ
बंद करो उलूल जलूल लिखना
विराम दो
अपनी लेखनी को
वर्ना हत्या और आत्महत्या में
उलझ कर रह जाएगी पुलिस
फिर लिखते रहना
कहलाते रहना सहिष्णु
और सच्चा देश भक्त
बात तुम्हें समझ में नहीं आती
कितने साथियों को तो लील लिया हमने
क्या तुम भी जाना चाहते हो
उनके पास
तुम देख ही रहे हो
मौत पर दो चार दिन हाय तौबा के बाद
बात कैसे आयी गई जैसी हो जाती है
समय नहीं है किसी के पास
जो तुम जैसों की
मौत पर भी उमड़ पड़े जन सैलाब
पसीने छुड़ा दे हम जैसों के
सरकार हो जाए अस्थिर
बंद करो
किताबी मुहावरों पर रौब झाड़ना
कलम बड़ी या तलवार
तुम्हारी कलम से तुम्हारा ही सर कलम कर दिया
हाथ तो कानून के सचमुच लंबे होते हैं
लेकिन
तुम जैसों के लिए नहीं
सिर्फ हमारे लिए,,,,,
                            ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ( 1 फरवरी )

जय जवान
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सियाचिन के हिमस्खलन में
दस जानें कहां गई
माटी के सपूत थे
माटी में मिल गए

इनकी प्रतिबद्घता को देख
हिमालय हिल
बर्फ हो गए
माटी के सपूत थे
माटी में मिल गए

नमन तुम्हें ऐ सपूतों
तुम मर कर भी
अमर हो गए
माटी के सपूत थे
माटी में मिल गए,,,,,,,,
                                 ,,,,,,,,,,  ( 4 फरवरी )

झुरमुट
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याद है तुझे
वो मुहब्बत वाला पल
उस पल सिर्फ
मुहब्बत हुआ करती थी
क्या कहा
अब हमारा साथ नहीं रहा
तो क्या हुआ
आज तू नही है तो
वो झुरमुट भी कहां रहा
कब का काटा जा चुका है
और बन पड़ा है वहां
एक भव्य सा इमारत
जो शान से खड़ा है अपना वजूद लिए
हमारे वजूद को मिटा कर
लेकिन तुम चिंतित मत होना
और भी झुरमुट उग आए हैं
उस इमारत के इर्द गिर्द
जो कह रहे हैं
हमारा वजूद कभी खत्म नहीं होने देगा
तुम्हें तो खुश होना चाहिए
झुरमुट की साहस पर
उसकी आत्मीयता पर,,,
                                    ,,,,,,,,, ( 6 फरवरी )
 
इसे भारत रहने दो
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कुछ सोच
जो निरंतर संकुचित होती जा रही है
कुछ घर
जो अब भी
फूंके जा रहे हैं
कुछ धर्म
जिनमें अब भी मतभेद हैं
समानता नहीं है
ढोए जा रहे हैं
जहां हर पल कुछ दृश्य
उभर रहे हैं
एकजुटता के गीत गाए जा रहे हैं
लहुलुहान जनादेश
अपनी पगड़ी संभाले
कहीं और भागे जा रहे हैं
भरे बाजार इज्जत लूटी जा रही है
अपनों को तो आदत है
मेहमान भी सर झुकाए जा रहे हैं
मैं किस किस को समझाऊं
ये भारत है भाईयों
इसे भारत ही रहने दो
भारत ही रहने दो,,,,          
                                ,,,,,,,,,,,,,,( 7 फरवरी )


जाइए जाकर पूछिए
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दिल पर पत्थर रखना
क्या होता है
जाइए जाकर पूछिए
छाती पीटती उस मां से
जिसका जवान बेटा
अभी अभी मरा है
मेरे और आपके मुठभेड़ में
जाइए जाकर पूछिए
उस किसान के परिवार वालों से
जिसने अभी अभी आत्महत्या कर ली है
जिनकी फसलों को आग लगा दिया है
उन आततायियों ने
जाइए जाकर पूछिए
उस विधवा से
जिसका पति अभी अभी शहीद हुआ है
किसी मिशन पर
आतंकियों के गोली से
जाइए जाकर पूछिए
उस मां से जिसने अपने बच्चों को
सिर्फ पानी पिलाकर सुलाया है
कल भोजन मिलेगा की सांत्वना देकर
जाइए जाकर पूछिए
ट्रैफिक पर भीख मांगते भिखारी से
जिसे भीख के बदले मिलती है रोज
कुछ नयी गालियां
जाइए जाकर पूछिए
स्टेशन के बाहर बैठा उस अपाहिज से
जिसके सर से अभी अभी उठ गया है
मां बाप का साया
और थमा दिया है उसे
हम में से किसी ने हाथ में कटोरा
और आप हैं कि
बात करते हैं
दिल पर पत्थर रखने की
पत्थर का भी अपना वजूद है
हर समय पत्थर नहीं रख सकते दिल पर,,,
                                ,,,,,,,,,,,,,,,,( 8 फरवरी )

आजकल
कांटे कहां चुभते है
बातें चुभ जाती हैं
प्रेम में
और लहूलुहान हो उठता है
एहसास
विश्वास गहरा होने के बजाए
पीप से भर उठता है
और
ताजा हो जाता है घाव,,,,
                                ,,,,,,, ( 15 फरवरी )

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अपने देश का हाल देखिए
अपने शहर का समाज देखिए

जिनके मुंह में ज़ुबान न थी
उनकी अब आवाज देखिए

चोंगा बदल बैठा है सरताज़
बीता हुआ कल और आज देखिए

रोटी पे नमक न थी कल तक
नमक खाए नमकहराम देखिए

ख़ून से बदबू आती है जिनकी
काले कोट  वाले देशभक्त देखिए

बिखरा पड़ा है साजो सामान
कश्मीर के भूखे सियार देखिए,,,,,                  
                                          ( 18 फरवरी )

देशद्रोह
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देशद्रोह क्या होता है
मुझे नहीं पता
मुझे यह भी नहीं पता कि क्या बोलने
पर देशद्रोह का मुकदमा चल जाए हम पर
इसलिए चुपचाप सब सुनता हूं
और चुपचाप पूछता हूं सबसे
ये देशद्रोह क्या होता है

राष्ट्रवाद की तो पूछिए मत
राष्ट्र में ट के नीचे लटका
दो तिरछे लकीर जैसा हूं मैं
फिर इसकी परिभाषा मुझे कैसे मालूम होगी

असल देशभक्त और राष्ट्रवादी तो वो हैं जो
बात बे बात
तेरे मां की
तेरे बहन की करते हैं
मैं जान गया हूं अब
किसी भीड़ को अगर संबोधित करूं
तो मुंह पर पट्टी बांध लूं
कहीं औरत लुटता देखूं
तो नजरें घुमा लूं
कहीं खून होते देखूं
तो कहूं
मैने कुछ नहीं देखा
मैं वहां नहीं था

क्या कहा ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा

अगर वास्तव में कुछ होता
तो रोहित जिंदा और
कन्हैया बाहर होता,,,,,,,,,,,,,,,,,,
                                       ( 20 फरवरी )

आप ट्वीटर पर रहें
या जूपिटर पर आपका
हर संभव प्रयास होता है
दूसरे को नीचा दिखाने का
लेकिन
आप उसे कैसे नीचा दिखाएंगे
जो दिनभर अथक मेहनत के बाद
शाम में कहता है
मालिक आज थोड़ा जल्दी जाना है
मेरा छोटका बचवा बीमार है
और आप कहते हैं
अभी टाईम नहीं हुआ है
तू कामचोर कब से हो गया रे,,,,
                                      ,,,,,,,( 28 फरवरी )
© पंकज कुमार साह 

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

मेरी नौ कविताएं जनवरी ( 2016)

जनरल बोगी में सफर करते हुए
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स्लीपर और एसी बोगी में सफर करने वालों
तुम क्या जानो
जनरल बोगी में सफर करने वालों का दर्द
चैन वाला गुरकौआ बैग घसीटने वालों
तुम क्या जानो
भारी गठरी के साथ सफर करने वालों का दर्द
तुम्हारी तरह नहीं होता उनके पास
किसी नामी कंपनी वाला लेदर का पर्स
और उसमें हजार पांच सौ के नोट
उनका पर्स होता है
उस गठरी के सबसे नीचे रखी मटमैली धोती या साड़ी का एक खुंट
जिसमें बंधी होती होती है उनकी गाढी कमाई
जिसे बार बार टटोल आश्वस्त होता है
जनरल बोगी का वो यात्री
कि कहीं गठरी कट तो नहीं गई
किसी फैशन शो के मॉडल सी तुम्हारी
बहु बेटियां क्या जाने
मनचलोें  की नजरों से कैसे बचाती हैं खुद को
उनकी बहु बेटियां
संभाली गई आंचल को बार बार किस तरह संभालती हैं उनकी माँ बहनें
सूखी डकार लेने वालों तुम क्या जानो
रूमाल में बंधी उनकी सूखी रोटी का स्वाद
जो कहीं बेहतर होता है
घी में चुपड़ी और किचन रैपर मेें लिपटी
तेरी रोटियों से,,,,,,
                 ------------------    (3 जनवरी )


हे वीर सपूतों है तुझे नमन
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कानों से उंगली हटाइए सरकार
धमाकों की आवाज सुनिये सरकार

रो रही विधवाएं सुलग रही है चिताएं
अब तो मुंह से कुछ कहिये सरकार

शहीदों के शरीर में भी जान है
प्राणों से ऐसे ना खेलिए सरकार

वो घर में घुस हमें मार रहा
अब तो उसे खदेड़िए सरकार

हमें तो मालूम है हमारी औकात
उसे उसकी औकात दिखाइये सरकार

आँखे हैं नम गला गया है रूंध
शहीदों की लाज बचाइए सरकार
              -------------------(5 जनवरी )

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किसी अपने का जाना
इतिहास होना है
जिसमे राजा रानी रणभूमि सिपाही मंत्री
और ना जाने क्या कुछ
सुना है
कभी कभी
इतिहास दोहराता है खुद को
लेकिन वो कभी नहीं लौटते
खुद को दोहराने
कभी कभी
लगता है भूत नहीं
आज भी वर्तमान हैं वो
उनके हाथ अब भी उठे हुए हैं
आशीर्वाद देने की मुद्रा में,,,,
                 ------------------- (8 जनवरी )

अलाव
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एक अलाव
कुछ लोग
और ढेर सारी बातें
खेत खलिहान
कटाई बुआई
गौना ब्याह
दुनिया जहान
सर सरपंच
और भी बहुत कुछ होता है
उनकी बातों में
जो बैठे होते हैं अलाव के इर्द गिर्द
अपने अपने दिल की भड़ास निकालते
एक दूसरे से खुद को
श्रेष्ठ साबित करने की जिद्द
कभी कभी
कई फैसलों के गवाह बनती है ये अलाव
बावजूद
आप नही उतर सकते अलाव मे
अलाव उतरती है आपके भीतर
अलाव की लकड़ियां चुपचाप
जल रही है
गुर्रा रही है फट फट की आवाज के साथ
बीच बीच में
पसीने निकल आते हैं
लकड़ियां पसीने को भी जला डालती है
श्रेष्ठ भी जल रहे हैं
बीच बीच में
उन्हें भी जला रही है लकड़ियां
उनमे से एक
अधजली लकड़ी को डाल देता है
फिर धधकते अलाव में
लकड़ियां मन मसोस जल रही है
खाक होने तक
ना जाने कितनी लकड़ियां
खाक हो रही है इस अलाव संवाद में,,,
                     -------------------( 9 जनवरी )

ब्रेकिंग न्यूज
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एक ताजा समाचार
फलां ने फलां देश पर हमला किया
7 जवान मारे गए
कोई बात नहीं
जवान होते ही हैं मरने के लिए
अब आगे
फलां देश में जश्न का माहौल
ज्वलंत मुद्दा भेड़ियों के लिए
बहसबाजी शुरू
अब बारी है हमला सिद्द करने की
हमलावर-
तुम सबूत दो कि ये हमले
हमने ही किये हैं
जी सर जी - जी- जी
सबूत दे देंगे सर
सबूत पेश किया गया
हमलावर-
सारे सबूत गलत हैं
पंचों के सामने हमें
बदनाम करने की साजिश है
जिस समय हमला हुआ
उस समय हम और हमारे लोग
अपने मुखिया के जन्मदिन का जश्न मना रहे थे
ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे
गाने पर थिरक रहे थे
देखो तो
अब भी पैरों में सूजन है,,,
                                    ( 13 जनवरी )

रोहित वेमुला की मौत पर
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ना तो
मैं उन्हे द्रोणाचार्य कहूंगा
और ना ही
तुम्हे एकलव्य से संबोधित करूंगा
गुरू द्रोण और एकलव्य की विरासत वाली धरती तुम्हें सहन नहीं कर पायी
और बुला लिया चुपके से अपने गर्भ में
तुम मरे नहीं हो मित्र
बस आवाज लगाकर कहीं चले गए हो सुस्ताने
क्योंकि बुलंद आवाज वाले
मरा नहीं करते
बस विराम देते हैं खुद को
तुम्हारी आवाज आज भी गूंज रही होगी उन बहरों की कानों में
पर्दे फट रहे होंगे खून के फब्बारे छूट रहे होंगे उनके कानों से
बस ये सब देखने के लिए तुम नहीं हो
लेकिन मुझे मालूम है
तुम सब देख रहे हो बंद आंखों से
और मुस्कुरा रहे हो उनकी हालात पर
नमन है तुम्हें,,,,
                                  ,,,,,,,,,( 19 जनवरी )

चिंता
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वो जागती आंखो से सपने देखती है
रिश्ते लेकर अगुआ खड़े हैं
पूरा घर अस्त व्यस्त
चाय पानी
नास्ता पान सिगरेट
कोई कमी नहीं होने चाहिए
आखिर घर और पिता की इज्जत का सवाल है
क्योंकि बात बे बात
नाक कट जाती है समाज में
जो होते हैं
बेटी का पिता
बेटी जो ना जाने कब
किस घर की बहु बने या बेटी ही रहे
बार बार झांक रही है पर्दे की ओट से
कलेजा इतने जोरों से धड़क रहा है मानो
दस किमी दौड़ कर आयी हो
उसे फिर गुजरना है उस दौर से
जिससे गुजर चुकी है पाँच छः बार पहले ही
वह चिंतित नहीं है
उसे मालूम है
फिर ठोका बजाया जाएगा उसे
बस चिंता है तो
ठोकने बजाने वालों की
ना जाने किस बात पर
ताल बिगड़ जाए
नास्ता पानी
पान पुड़िया सब हो चुका
उसे इस बात की भी चिंता नहीं
बस चिंता है तो
चबाए जा रहे पान की
जिससे लाल रंग का पिक निकलेगा या
फिर सफेद हो जाएगा पिक
और पानी फिर जाएगा उसके पिता की उम्मीद पर
बस यही चिंताएं उसका कलेजा धड़का रहा है
और बार बार
आसमान ताक रही है
ऐसे तो लड़की सब जानती है
बस नहीं जानती तो
अपने जोड़ीदार के बारे में
क्योंकि
बचपन से तो यही सुनती आयी है कि
जोड़ी तो आसमान में ही तय होते हैं,,,,
                                  ,,,,,,,,,, ( 23 जनवरी )
कवि
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सुना है
वो बहुत अच्छी कविताएं लिखते हैं
वो औरत को चांद
और किसान को देश का रीढ लिखते हैं
सुना है
बहुत बड़े कवि हैं वो
खूब लाइक मिलता है उन्हें
उनकी पंक्तियों पर
देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में छपती है
उनकी रचनाएं
सोचता हूं
मैं भी छपूं
देश की अच्छी पत्रिकाओं में
मैं भी लिखूं
उलूल जलूल बातें
किसी को न समझ आने वाली
खराब कविताएं
और कहलाउं
एक अच्छा कवि
कैसे बताऊं मैं उन्हे
मैं स्री के बालों में उलझा नहीं रह सकता
स्री के बाल तो उन्होंने अपनी मुट्ठी में जकड़ रक्खा है
चांद तारे धरती पर नहीं ला सकता
धरती पहले से ही पटी पड़ी है
औरतों को पिघलता बर्फ नहीं कह सकता
फिर मैं ग्लेशियर से क्या कहूंगा
किसान को देश की आत्मा नहीं कह सकता
क्योंकि आत्माएं तो रोज आत्महत्या कर रही है
मैं चिंतित हूं
आखिर वो शब्द कहां से लाऊं
जिससे कहला सकूं
एक अच्छा कवि,,,
                                ,,,,,,,,,,,,,( 24 जनवरी )

देश की तस्वीर
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इस वक्त देश की तस्वीर
कैसी बन रही है आपके जेहन में
मुझे नहीं पता
बस इतना पता है
खदकते हुए अदहन में
आंच और तेज किया जा रहा है
कुचले जा रहे हैं एयर फोर्स
किसी अॉडी तले
मशहूर डान चुनौती दे रहा है
अपनी सजा को
आखिर किस रचनाधर्मिता की बात कर रहे हैं
आप
जिनके शब्द तेज आंच पर साग पका रहे हों
किसी के घर झाड़ू लगा रहे हों
या फिर
औंधे मुंह मुर्गा बना बैठा हो
चलिए छोड़ दिया
देश की मिजाज पर ही बातें करें
आंच
अदहन
अॉडी
एयर फोर्स
सब बेतुकी बातें हैं
खदकता है कुछ न कुछ सब में
मुझमे भी,,,,,
                  ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ( 28 जनवरी )      

©पंकज कुमार साह

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

देश की शिक्षा व्यवस्था

मैं काबिल-ए-तारीफ
देश की शिक्षा व्यवस्था हूँ
मैं भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबा
शिक्षा के नाम पर मजाक हूं
कुव्यवस्था में लिपटा
कुम्हार के चाक का माटी हूं मैं

अपंग अपाहिज
टूटी हुई बैसाखियों के सहारे
लंगड़ाता घिसटाता
नित्य नया समाचार हूं मैं

कदाचार का जमावड़ा
गंदी राजनीति का शिकार
धोखाधड़ी का अखाड़ा हूं मैं

मध्याह्म भोजन के नाम पर लुट हूं
सरकारी राशियों की
खसोट हूं मैं
शिक्षा का दुष्प्रचार हूं
बच्चों की आंखो में
झोंका जाने वाला
धूल हूं मैं
दाल में गिरी छिपकली तथा
भात में रेंगता
सफेद कीड़ा हूं मैं

शान से
लहराता बलखाता
खुशी खुशी
फलता फूलता
देश की शिक्षा व्यवस्था हूं मैं
                             @पंकज कुमार साह

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

गुलाम खून

कल चौराहे पर
खून देखा
पता नहीं किसका था
ना तो नाम लिखा था
और ना ही जात
मैं चुपचाप चलता बना
अपने गंतव्य को
गाहे बगाहे
कौन उलझे इस खून से
वर्षों पहले
सुभाष जी उलझ पड़े थे
मांगे फिर रहे थे लोगों से खून
लेकिन खुद का खून
कहां बिखरा
किसी को पता नहीं
अब तक
बुद्धिजिवियों के शोध का विषय है
निष्कर्ष
हम आजाद हो गए
हिंद हिन्दुस्तान भारत हो गया
फौज
आज सीमाओं पर खड़े होकर
सर कटा रही है
सब कुछ ठीक हुआ बस
हमारा खून गुलाम हो गया
जब जिसने चाहा चूसा
मन भर जाने पर
हमारे मुंह पर थूका,,,
                    @पंकज कुमार साह